Saturday, September 12, 2009

लेखन कला या लेखन का काल

एक दिन बाजार में,
मिले पुराने परिचित,
हाल-चाल के बाद पूछा....
भाई आजकल क्‍या कर रहे हो
बोले, बस यूं ही लेखन चल रहा है,
जवाब सुनकर
मैं हैरान, मन ही मन परेशान,
सोचने लगा - यह लक्ष्‍मी-वाहन
कैसे हो चला है, शारदा का उपासक
यह भेद, अभेद हो गया,
मैं मूढ़ से मूढ़तम स्‍तर को जा पहुँचा,
पर इस उपासना परिवर्तन का रहस्‍य पकड़ न पाया,
अंततोगत्‍वा......
बात को आगे बढाते हुए उन्‍हीं से पूछने लगा
आप जैसे व्‍यक्तित्‍व का
कृतित्‍व जैसे नीरस, शुष्‍क क्षेत्र में पदार्पण क्‍योंकर हुआ,
कृपया कुछ तो खुलासा कीजिए।
फिर इस विधा में कुछ
खास कमाई भी नहीं है,
फिर आप, अपना अच्‍छा खासा, जमा जमाया, पुश्‍तैनी धंधा छोड़
यहां क्‍यूं, मगजमारी करने लगे,
सुनते ही उनके चेहरे पर, पहले तो
हमारी कमअकली पर तरस खाने का भाव आया
फिर बड़प्‍पन दिखाते हुए उन्‍होंने समझाया
देखो, तुम जैसे कूप मंडूकों में
यही तो कमी है
बिना विचारे सीधे ही फैसला सुना देते हो,
अरे भाई, जमाना कहां से कहां, पहुंच रहा है,
जहां अपोलो जाता था, वहां चन्‍द्रयान जा रहा है,
कल तक जो सरस्‍वती भक्‍त
बिन-पनही, मोजड़ी के,
बदरंग कपड़ों में लिपटा, पैदल चला करता था
आज वह आलीशान, वातानुकूलित कार चला रहा है
हमारा दुर्भाग्‍य कि हम फिर भी
कुछ समझ नहीं पाए
अंत: हम फिर रिरियाए
पूछ बैठे, यह सब कैसे होता है
और ऐसे ही क्‍यों होता है
सुनते ही उनके चेहरे पर
घृणा मिश्रित, द्रुत विलम्बित, क्रोध के भाव देख
मुझे लगा कि आज बेभाव पड़ेगी,
पर, उनकी महानता, देखिए
शिव के गरलपान की तरह
उन्‍होंने अपने स्‍वरचित क्रोध का पान किया
जरा खांसे, और बड़ी ही रहस्‍यमयी, गोपनीय, गदगद कंठ से
सुधामय वाणी में बोले
तुमने सुना नहीं था क्‍या
कि लीक छोड़ तीनहिं चलैं - शायर, सिंह, सपूत
अरे मूर्ख, लिखने में क्‍या है,
किसी भी विवादास्‍पद विषय को
पकड़ लो,
दुनिया उत्‍तर को जा रही हो तो तुम दक्खिन को चलो
सब आम कह रहे हों तो तुम इमली कहो
फिर आम राय और चिंतन धारा के ठीक उलट
ऐसा कुछ लिखो
कि पढ़ने वालों के बीच बहस का निर्झर बह चले
यदि मामला दिग्‍गजों का हुआ,
कोई गड़ा मुर्दा उखाड़ने का हुआ तो
मुद्दा संसद तक गूंजेगा
अख़बार, टीवी चैनल, सब कुछ बहस-मय हो उठेगा
सब घेरेंगे आपको इंटरव्‍यू के लिए, दुनिया पीछे पड़ी होगी
बस यही परीक्षा की घड़ी होगी
यहीं तुम्‍हे आत्‍मबल का प्रदर्शन करना होगा
अपनी बात पर अड़े रहना होगा,
सब जो कहें उससे उलट कहना होगा
जमाने का क्‍या है, उसकी याददाश्‍त बहुत कम होती है
क्‍योंकि इतिहास पढ़कर हमने इतना जाना है
कि कोई इतिहास से सबक नहीं लेता है,
इसलिए कोई कितना भी तर्क देवे
कितना ही बड़ा तर्क-सम्राट आ जावे
घबराना मत, डटे रहना, मौन रहना
क्‍योंकि सुना है ना - कि सबसे बड़ी चुप
बहस बढ़ेगी तो इंटरव्‍यू लेने वाले दौड़े आएंगे
खुद उनका बौद्धिक स्‍तर ही बौना है
तो तुम्‍हे क्या जान पाएंगे, उल्‍टे तुम्‍हारी ख्‍याति फैलाएंगे
बदनाम का भी तो नाम है,
भले ही एक बटा दो.
और नाम हुआ तो नामा खुद दौड़ा चला आएगा
इतना ही नहीं
आप प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी माने जाएंगे
हर सभा - सोसायटी में विशेष आमंत्रित होंगे
पुरस्‍कारों की आप पर वर्षा होगी
हो सकता है विरोधी राष्‍ट्र भी आपके नाम की सिफारिश
बूकर पुरस्‍कार के लिए कर डालें
फिर तो आप कूड़ा लिखें या कचरा
सब हाथों हाथ बिकेगा
इतना कहकर वे रुके
मेरी दीनता पर तरस खाते हुए देखा
मानो पूछ रहे हों - कि कुछ समझे
इस गूढ़ रहस्‍य को जानकर हमने
आभार स्‍वरूप हाथ जोड़ लिए
वे हलके से मुस्‍कराए
हमारे कंधे थपथपाए
और आगे बढ़ गए।

यमराज की परेशानी

यमराज की परेशानी
कल सपने में यमराज जी आए
मुख पर उदासी, मलिन वेशभूषा
निवेदन किया तो उन्‍होंने बताया
' टारगेट ने है मुझको सताया '
बस इसीलिए डर है, त्रिनेत्रधारी के कोप का।
मैंने करबद्ध मुद्रा में कहा
प्रभु ,
इन दिनों दुर्घटनाओं और आपदाओं के कारण
प्राणी नित ही काल कवलित हो रहे हैं
फिर आप किस बात से डर रहे हैं।
वे बोले, यही तो हम भी कहते हैं
पर दिगम्‍बर हमारी कहां सुनते हैं
फिर से टारगेट बढ़ा देते हैं।
मैंने पुन: जिज्ञासा प्रकट की
प्रभु, तो आप कैसे पूरा करेंगे,
बोले बस यही प्रार्थना करूंगा कि
मानव को थोड़ी और सद् बुद्धि आ जाए
बस इतना करे कि
दुपहिया दौड़ाते समय,
ट्रैफिक को पछाड़ते समय,
मोबइल पर बतियाते समय
बस इतना और किया करें....
कि दोनों हाथ सिर पर धर लिया करें
फिर त्रिलोकीनाथ
कितना ही टारगेट बढ़ाएं
बस रोज ही पूरा पाएं