सुबह सवेरे
एक सड़के के किनारे बोर्ड पर पढ़ा -
हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है
पढ़कर मन मयूर पुलकित हुआ
तभी दिमाग ने अलख जगाई - आवाज आई
क्यूं छलावे में आ रहा है
ऊपर से ऐसा ही लिखने का आदेश आ रहा है
यह देश तो हजारों साल से कुर्सी प्रधान देश रहा है
समझदार लोग इस परम सत्य को मानते हुए
पीढ़ी दर पीढ़ी
कुर्सी की ही पूजा करते चले आ रहे हैं
किसान को मूरख बनाकर
उसे अन्नदाता बताकर
सदियों से राज़ को कायम रखते हुए
इस देश पर
राज कर रहे हैं
इतने पर ही बस नहीं है
सिंगूर के किसानों पर
गोली चलवाकर
कारखाना लगवा रहे हैं
पूरे देश में उद्योग (पतियों) की सेज लगाने
में फूल भी लगेंगे
इसलिए बंजर को बचाकर
उर्वरा, शस्य-श्यामला, सुजला पर ही
उनकी सेज बिछा रहे हैं
सुनो सब सुनो
यदि यह देश वास्तव में कृषि प्रधान होता
तो न गोली चलती किसानों पर
न खेती की भूमि पर कब्जा होता सरकारी
फिर भी
सौन्दर्यबोध तो देखो
देश को फिर-फिर कृषि प्रधान बता रहे हैं
शायद इसी बहाने कुछ जन-मत जुटा रहे हैं
इस कुर्सी प्रधान देश की कुर्सी
के पाए हैं चाटुकार
जिन्हें कृषि से नहीं कुछ दरकार
जो वास्तव में नेपथ्य से चला रहे हैं - सरकार
यह तो आदिकाल से चीख चीख कर बताया जाता रहा है
कि सुनो
भारत में कृषि एक जुआ है
इसीलिए कृषि को नहीं
प्रकारान्तर से जुए को हटा रहे हैं
क्या पुण्यलाभ कमा रहे हैं
कृषक को जुआ खेलने से बचा रहे हैं
न भूमि होगी और न होगी कृषि
फिर जुए की क्या मजाल जो ठहरे
अनावृष्टि या अतिवृष्टि की व्यथा भी सुनने को न मिलेगी
बाढ़ आने पर भी खेती का न होगा नुकसान
कितना खुशहाल होगा फिर अपना किसान
तरक्की की इन्तहा तो देखो
वे दिन गए जब
बांस न होने से बांसुरी नहीं बजती थी
अब तो नया जमाना है
इसीलिए स्टील की बांसुरी बनाना है
भारत को कुर्सी प्रधान देश ही बनाना है
खेती ही न होगी तो किसान
आत्महत्या भी न करेगा
भला हो तुम्हारा वह तो पाप से बचेगा
भला हो तुम्हारा वह तो पाप से बचेगा
फिलहाल तो
ऊपर से यही आदेश है
लिखो - भारत एक कृषि प्रधान देश है
काश ऐसा होता
योजनाओं की तरह
कृषि भी कागज पर होने लगती
तो कितना फल देती
एक भी बीज वृथा न जातासारा देश हरा हो जाता
तब वास्तव में
देश हमारा कृषि प्रधान होता
हर पन्ना अनाज से अटा होता
वो बात दूसरी है कि तब
सबका पेट - अपनी ही पीठ से सटा होता
Thursday, March 29, 2007
Sunday, March 25, 2007
समाचार है या स्टोरी
लगभग चार दशक पहले समाचार, संगीत या अन्य मनोरंजन के कार्यक्रमों का एकमात्र् सहारा हुआ करता था - रेडियो. इसी साधन से समाचारों की जानकारी या मनोरंजन के अन्य कार्यक्रम जैसे संगीत, नाटक भी प्रसारित होते थे. दायरा सीमित था, केवल श्रवण. इसके समय बीते तो आकशवाणी ने अपना प्रसार किया और श्रवण के साथ साथ दर्शन भी होने लगे. पर दर्शनलाभ का समय नियत था प्रतिदिन शाम के समय दो या तीन घन्टे का समय इस दर्शन में जाया करता था. लेकिन इस समय तक होता यही था कि दर्शन या श्रवण दोनों में से किसी ने भी मर्यादा को छोड़ा नहीं था.
बीसवीं सदी का अंतिम दशक - जिसे सूचना क्रान्ति का दशक भी कहा जाता है - जिसके कर्णधार रहे सैम पित्रोदा - इनका असली नाम मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे ये मूल रूप से गुजरात के थे, और इनके नाम के साथ भाई भी जुड़ा हुआ था. इस दशक में संचार क्रान्ति के नए आयाम स्थापित हुए और लोगों ने एक के बाद एक दे दनादन केबल कनेक्शन लेने शुरू कर दिए. इन सबने मिलकर मनोरंजन के साधनों में भी धुंआधार बदलाव किए. समाचार, खेलकूद, ज्ञान विज्ञान, खोज, सिनेमा, चिकित्सा जगत और धारावाहिकों के अलावा जानकारी के लगभग सभी क्षेत्रों से जुड़े कार्यक्रम घर घर पहुंचने लगे. निजी क्षेत्र को भी अनुमति देने के बाद तो जैसे चैनलों और कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई. जिस टीवी में दो चार चैनल देखने को मिलते थे, उसी में सौ से भी ज्यादा चैनल होने लगे.
चैनलों के साथ ही कार्यक्रमों की भी रेलमपेल हो गई. यही नही हर चैनल वाले ने एक दूसरे से आगे निकलने की ऐसी होड़ मचाई की पुरानी दिल्ली के खारी बावली का ट्रैफिक जैसा नजारा प्रस्तुत हो गया. मनोरंजन तक ही बात सीमित रहती तो चल जाता, पर होड़ मची खबर देने की. सबसे पहले और सबसे ज्यादा समाचार देने की.
अब समाचार की क्या कहिए - हर पल नया होता है, अतीत और भविष्य एक दूसरे से सटे रहते हैं. काल अपनी गति से भागता रहता है और मानव अपनी गति से. पर यह भी उतना ही सत्य है कि हर पल नया समाचार जन्म नहीं ले सकता. क्योंकि समाचार की पहली शर्त होती है नवीनता, दूसरी विचित्रता और साथ ही समाज का हित. अब आप दिन के चौबीसों घंटे समाचार कहां से लाएंगे, ताजा समाचार कहां से लाएंगे. तो समाचार के पुरोधा नए युग में एकदम पुराने सूत्र की ओर चले गए - कि कुत्ता आदमी को काटे तो कोई समाचार नहीं लेकिन यदि आदमी कुत्ते को काटे तो धांसू समाचार बनता है. बस आदमी ने कुत्ते को काटना शुरू कर दिया और इसी तर्ज पर समाचार भी गढ़े जाने लगे. पर इस नियम की भी अपनी सीमा है तो इन समाचारा पुरोधाओं ने उन लोगों को तलाशना शुरू कर दिया जो छपास रोग से ग्रसित लेखक की तरह से ही दर्शन लाभ देने के लोभ से ग्रसित हैं. बस फिर क्या था समाचार चैनल और विज्ञापन दाता एजेंसी सभी की पौ बारह हो गई. बे-सिर-पैर के सवाल, करुणरस में भी हास्य रस का सृजन करने वाले बेतुके जुमले - कि दर्शक भी चकरा जाए आखिर कहना क्या चाह रहे हैं. रही सही कसर आफ्टर दि ब्रेक से पूरी हो जाती है.............
आगे पढि़ए समाचारों की कमी को पूरा करने का तरीका बस वही आफ्टर दि ब्रेक .......
बीसवीं सदी का अंतिम दशक - जिसे सूचना क्रान्ति का दशक भी कहा जाता है - जिसके कर्णधार रहे सैम पित्रोदा - इनका असली नाम मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे ये मूल रूप से गुजरात के थे, और इनके नाम के साथ भाई भी जुड़ा हुआ था. इस दशक में संचार क्रान्ति के नए आयाम स्थापित हुए और लोगों ने एक के बाद एक दे दनादन केबल कनेक्शन लेने शुरू कर दिए. इन सबने मिलकर मनोरंजन के साधनों में भी धुंआधार बदलाव किए. समाचार, खेलकूद, ज्ञान विज्ञान, खोज, सिनेमा, चिकित्सा जगत और धारावाहिकों के अलावा जानकारी के लगभग सभी क्षेत्रों से जुड़े कार्यक्रम घर घर पहुंचने लगे. निजी क्षेत्र को भी अनुमति देने के बाद तो जैसे चैनलों और कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई. जिस टीवी में दो चार चैनल देखने को मिलते थे, उसी में सौ से भी ज्यादा चैनल होने लगे.
चैनलों के साथ ही कार्यक्रमों की भी रेलमपेल हो गई. यही नही हर चैनल वाले ने एक दूसरे से आगे निकलने की ऐसी होड़ मचाई की पुरानी दिल्ली के खारी बावली का ट्रैफिक जैसा नजारा प्रस्तुत हो गया. मनोरंजन तक ही बात सीमित रहती तो चल जाता, पर होड़ मची खबर देने की. सबसे पहले और सबसे ज्यादा समाचार देने की.
अब समाचार की क्या कहिए - हर पल नया होता है, अतीत और भविष्य एक दूसरे से सटे रहते हैं. काल अपनी गति से भागता रहता है और मानव अपनी गति से. पर यह भी उतना ही सत्य है कि हर पल नया समाचार जन्म नहीं ले सकता. क्योंकि समाचार की पहली शर्त होती है नवीनता, दूसरी विचित्रता और साथ ही समाज का हित. अब आप दिन के चौबीसों घंटे समाचार कहां से लाएंगे, ताजा समाचार कहां से लाएंगे. तो समाचार के पुरोधा नए युग में एकदम पुराने सूत्र की ओर चले गए - कि कुत्ता आदमी को काटे तो कोई समाचार नहीं लेकिन यदि आदमी कुत्ते को काटे तो धांसू समाचार बनता है. बस आदमी ने कुत्ते को काटना शुरू कर दिया और इसी तर्ज पर समाचार भी गढ़े जाने लगे. पर इस नियम की भी अपनी सीमा है तो इन समाचारा पुरोधाओं ने उन लोगों को तलाशना शुरू कर दिया जो छपास रोग से ग्रसित लेखक की तरह से ही दर्शन लाभ देने के लोभ से ग्रसित हैं. बस फिर क्या था समाचार चैनल और विज्ञापन दाता एजेंसी सभी की पौ बारह हो गई. बे-सिर-पैर के सवाल, करुणरस में भी हास्य रस का सृजन करने वाले बेतुके जुमले - कि दर्शक भी चकरा जाए आखिर कहना क्या चाह रहे हैं. रही सही कसर आफ्टर दि ब्रेक से पूरी हो जाती है.............
आगे पढि़ए समाचारों की कमी को पूरा करने का तरीका बस वही आफ्टर दि ब्रेक .......
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