लगभग चार दशक पहले समाचार, संगीत या अन्य मनोरंजन के कार्यक्रमों का एकमात्र् सहारा हुआ करता था - रेडियो. इसी साधन से समाचारों की जानकारी या मनोरंजन के अन्य कार्यक्रम जैसे संगीत, नाटक भी प्रसारित होते थे. दायरा सीमित था, केवल श्रवण. इसके समय बीते तो आकशवाणी ने अपना प्रसार किया और श्रवण के साथ साथ दर्शन भी होने लगे. पर दर्शनलाभ का समय नियत था प्रतिदिन शाम के समय दो या तीन घन्टे का समय इस दर्शन में जाया करता था. लेकिन इस समय तक होता यही था कि दर्शन या श्रवण दोनों में से किसी ने भी मर्यादा को छोड़ा नहीं था.
बीसवीं सदी का अंतिम दशक - जिसे सूचना क्रान्ति का दशक भी कहा जाता है - जिसके कर्णधार रहे सैम पित्रोदा - इनका असली नाम मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे ये मूल रूप से गुजरात के थे, और इनके नाम के साथ भाई भी जुड़ा हुआ था. इस दशक में संचार क्रान्ति के नए आयाम स्थापित हुए और लोगों ने एक के बाद एक दे दनादन केबल कनेक्शन लेने शुरू कर दिए. इन सबने मिलकर मनोरंजन के साधनों में भी धुंआधार बदलाव किए. समाचार, खेलकूद, ज्ञान विज्ञान, खोज, सिनेमा, चिकित्सा जगत और धारावाहिकों के अलावा जानकारी के लगभग सभी क्षेत्रों से जुड़े कार्यक्रम घर घर पहुंचने लगे. निजी क्षेत्र को भी अनुमति देने के बाद तो जैसे चैनलों और कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई. जिस टीवी में दो चार चैनल देखने को मिलते थे, उसी में सौ से भी ज्यादा चैनल होने लगे.
चैनलों के साथ ही कार्यक्रमों की भी रेलमपेल हो गई. यही नही हर चैनल वाले ने एक दूसरे से आगे निकलने की ऐसी होड़ मचाई की पुरानी दिल्ली के खारी बावली का ट्रैफिक जैसा नजारा प्रस्तुत हो गया. मनोरंजन तक ही बात सीमित रहती तो चल जाता, पर होड़ मची खबर देने की. सबसे पहले और सबसे ज्यादा समाचार देने की.
अब समाचार की क्या कहिए - हर पल नया होता है, अतीत और भविष्य एक दूसरे से सटे रहते हैं. काल अपनी गति से भागता रहता है और मानव अपनी गति से. पर यह भी उतना ही सत्य है कि हर पल नया समाचार जन्म नहीं ले सकता. क्योंकि समाचार की पहली शर्त होती है नवीनता, दूसरी विचित्रता और साथ ही समाज का हित. अब आप दिन के चौबीसों घंटे समाचार कहां से लाएंगे, ताजा समाचार कहां से लाएंगे. तो समाचार के पुरोधा नए युग में एकदम पुराने सूत्र की ओर चले गए - कि कुत्ता आदमी को काटे तो कोई समाचार नहीं लेकिन यदि आदमी कुत्ते को काटे तो धांसू समाचार बनता है. बस आदमी ने कुत्ते को काटना शुरू कर दिया और इसी तर्ज पर समाचार भी गढ़े जाने लगे. पर इस नियम की भी अपनी सीमा है तो इन समाचारा पुरोधाओं ने उन लोगों को तलाशना शुरू कर दिया जो छपास रोग से ग्रसित लेखक की तरह से ही दर्शन लाभ देने के लोभ से ग्रसित हैं. बस फिर क्या था समाचार चैनल और विज्ञापन दाता एजेंसी सभी की पौ बारह हो गई. बे-सिर-पैर के सवाल, करुणरस में भी हास्य रस का सृजन करने वाले बेतुके जुमले - कि दर्शक भी चकरा जाए आखिर कहना क्या चाह रहे हैं. रही सही कसर आफ्टर दि ब्रेक से पूरी हो जाती है.............
आगे पढि़ए समाचारों की कमी को पूरा करने का तरीका बस वही आफ्टर दि ब्रेक .......
Sunday, March 25, 2007
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1 comment:
ऊधो ! मन न भये दस बीस....
ये ऊधो कहाँ गये? :)
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