Friday, June 28, 2013

हमारा कानून
रविवार का दिन था , सुबह की चाय की चुसकियाँ ले रहा था कि ,
दरवाजे कि घंटी बजी , देखा कि पड़ौसी हाथ में एक कागज लिए खड़े थे ।
उनको अंदर बुलाया , इतनी सुबह आने का कारण पूछा , तो
बोले चरित्र प्रमाण पत्र चाहिये ।
मैंने कहा हम लोग पिछले पंद्रह साल से पड़ौसी हैं ,
एक क्या दस लीजिये , मगर किसलिये ।
वे बोले , पास पोर्ट बनवाना है ।
हमने कहा वह क्या बात है , किस देश की यात्रा का विचार है ।
प्रश्न सुनकर उन्होने कहा
मेरा नहीं , मेरी छः महीने की पौत्री का चाहिये ।
यह जानते ही हमें दिन में तारे नज़र आने लगे ,
भला, जो बच्ची माँ का दूध पी रही है
सारे दिन माँ की गोद में रहती है , उसका चरित्र प्रमाण पत्र ?
यह बात उनको समझाने का प्रयास किया , तो बोले
कल रात पुलिस वाला आया था ,
यही बात मैंने भी उसे समझायी परन्तु नहीं माना।
वही कह कर गया है कि पास पोर्ट के लिये चरित्र प्रमाण पत्र जरूरी है ।
यह हजम ना होने वाली पुलिस वाले कि दलील जानकर ,
मैंने अफसोस जाहिर करते हुए कहा,
शायद, इसीलिए देश के कर्णधारों ने बहुत सोच समझकर
आधी रात का समय आजादी के लिये चुना वरना
अपना देश क्या दिन के समय आजाद होने से मना कर रहा था ।
क्योंकि देश की जनता उस समय सो रही थी ,
जो आज तक भी सोई हुई ही है
और हर तकलीफ /बात को अपना भाग्य मानकर सिर धुन रही है ,
तथा जो उस समय जाग रहे थे ,वे तबसे  जाग ही रहे हैं ।
तथा, लोकतंत्र की बगिया से छांट छांटकर , हरी हरी चर रहे हैं
और, न्यूटन के गति के प्रथम नियम को प्रतिपादित कर रहे हैं ।
वैसे तो मुझे पहले ही संशय था , मगर आज यकीन हो गया है कि
आप भी मेरी तरह आम आदमी हैं , तभी चरित्र प्रमाणपत्र बनवा रहे हैं ।

यदि आप उस रात जग रहे परिवार के वंशज होते,
बिना आवेदन किये ही संकेत मात्र से,  इस दुधमुंही बच्ची का तो क्या,  
अपने स्वर्गीय रिश्तेदारों का भी पास पोर्ट घर बैठे आसानी से बनवा लेते ।

Thursday, July 15, 2010

Walk while you Talk

Walk while you Talk
पुत्र बोला

Saturday, September 12, 2009

लेखन कला या लेखन का काल

एक दिन बाजार में,
मिले पुराने परिचित,
हाल-चाल के बाद पूछा....
भाई आजकल क्‍या कर रहे हो
बोले, बस यूं ही लेखन चल रहा है,
जवाब सुनकर
मैं हैरान, मन ही मन परेशान,
सोचने लगा - यह लक्ष्‍मी-वाहन
कैसे हो चला है, शारदा का उपासक
यह भेद, अभेद हो गया,
मैं मूढ़ से मूढ़तम स्‍तर को जा पहुँचा,
पर इस उपासना परिवर्तन का रहस्‍य पकड़ न पाया,
अंततोगत्‍वा......
बात को आगे बढाते हुए उन्‍हीं से पूछने लगा
आप जैसे व्‍यक्तित्‍व का
कृतित्‍व जैसे नीरस, शुष्‍क क्षेत्र में पदार्पण क्‍योंकर हुआ,
कृपया कुछ तो खुलासा कीजिए।
फिर इस विधा में कुछ
खास कमाई भी नहीं है,
फिर आप, अपना अच्‍छा खासा, जमा जमाया, पुश्‍तैनी धंधा छोड़
यहां क्‍यूं, मगजमारी करने लगे,
सुनते ही उनके चेहरे पर, पहले तो
हमारी कमअकली पर तरस खाने का भाव आया
फिर बड़प्‍पन दिखाते हुए उन्‍होंने समझाया
देखो, तुम जैसे कूप मंडूकों में
यही तो कमी है
बिना विचारे सीधे ही फैसला सुना देते हो,
अरे भाई, जमाना कहां से कहां, पहुंच रहा है,
जहां अपोलो जाता था, वहां चन्‍द्रयान जा रहा है,
कल तक जो सरस्‍वती भक्‍त
बिन-पनही, मोजड़ी के,
बदरंग कपड़ों में लिपटा, पैदल चला करता था
आज वह आलीशान, वातानुकूलित कार चला रहा है
हमारा दुर्भाग्‍य कि हम फिर भी
कुछ समझ नहीं पाए
अंत: हम फिर रिरियाए
पूछ बैठे, यह सब कैसे होता है
और ऐसे ही क्‍यों होता है
सुनते ही उनके चेहरे पर
घृणा मिश्रित, द्रुत विलम्बित, क्रोध के भाव देख
मुझे लगा कि आज बेभाव पड़ेगी,
पर, उनकी महानता, देखिए
शिव के गरलपान की तरह
उन्‍होंने अपने स्‍वरचित क्रोध का पान किया
जरा खांसे, और बड़ी ही रहस्‍यमयी, गोपनीय, गदगद कंठ से
सुधामय वाणी में बोले
तुमने सुना नहीं था क्‍या
कि लीक छोड़ तीनहिं चलैं - शायर, सिंह, सपूत
अरे मूर्ख, लिखने में क्‍या है,
किसी भी विवादास्‍पद विषय को
पकड़ लो,
दुनिया उत्‍तर को जा रही हो तो तुम दक्खिन को चलो
सब आम कह रहे हों तो तुम इमली कहो
फिर आम राय और चिंतन धारा के ठीक उलट
ऐसा कुछ लिखो
कि पढ़ने वालों के बीच बहस का निर्झर बह चले
यदि मामला दिग्‍गजों का हुआ,
कोई गड़ा मुर्दा उखाड़ने का हुआ तो
मुद्दा संसद तक गूंजेगा
अख़बार, टीवी चैनल, सब कुछ बहस-मय हो उठेगा
सब घेरेंगे आपको इंटरव्‍यू के लिए, दुनिया पीछे पड़ी होगी
बस यही परीक्षा की घड़ी होगी
यहीं तुम्‍हे आत्‍मबल का प्रदर्शन करना होगा
अपनी बात पर अड़े रहना होगा,
सब जो कहें उससे उलट कहना होगा
जमाने का क्‍या है, उसकी याददाश्‍त बहुत कम होती है
क्‍योंकि इतिहास पढ़कर हमने इतना जाना है
कि कोई इतिहास से सबक नहीं लेता है,
इसलिए कोई कितना भी तर्क देवे
कितना ही बड़ा तर्क-सम्राट आ जावे
घबराना मत, डटे रहना, मौन रहना
क्‍योंकि सुना है ना - कि सबसे बड़ी चुप
बहस बढ़ेगी तो इंटरव्‍यू लेने वाले दौड़े आएंगे
खुद उनका बौद्धिक स्‍तर ही बौना है
तो तुम्‍हे क्या जान पाएंगे, उल्‍टे तुम्‍हारी ख्‍याति फैलाएंगे
बदनाम का भी तो नाम है,
भले ही एक बटा दो.
और नाम हुआ तो नामा खुद दौड़ा चला आएगा
इतना ही नहीं
आप प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी माने जाएंगे
हर सभा - सोसायटी में विशेष आमंत्रित होंगे
पुरस्‍कारों की आप पर वर्षा होगी
हो सकता है विरोधी राष्‍ट्र भी आपके नाम की सिफारिश
बूकर पुरस्‍कार के लिए कर डालें
फिर तो आप कूड़ा लिखें या कचरा
सब हाथों हाथ बिकेगा
इतना कहकर वे रुके
मेरी दीनता पर तरस खाते हुए देखा
मानो पूछ रहे हों - कि कुछ समझे
इस गूढ़ रहस्‍य को जानकर हमने
आभार स्‍वरूप हाथ जोड़ लिए
वे हलके से मुस्‍कराए
हमारे कंधे थपथपाए
और आगे बढ़ गए।

यमराज की परेशानी

यमराज की परेशानी
कल सपने में यमराज जी आए
मुख पर उदासी, मलिन वेशभूषा
निवेदन किया तो उन्‍होंने बताया
' टारगेट ने है मुझको सताया '
बस इसीलिए डर है, त्रिनेत्रधारी के कोप का।
मैंने करबद्ध मुद्रा में कहा
प्रभु ,
इन दिनों दुर्घटनाओं और आपदाओं के कारण
प्राणी नित ही काल कवलित हो रहे हैं
फिर आप किस बात से डर रहे हैं।
वे बोले, यही तो हम भी कहते हैं
पर दिगम्‍बर हमारी कहां सुनते हैं
फिर से टारगेट बढ़ा देते हैं।
मैंने पुन: जिज्ञासा प्रकट की
प्रभु, तो आप कैसे पूरा करेंगे,
बोले बस यही प्रार्थना करूंगा कि
मानव को थोड़ी और सद् बुद्धि आ जाए
बस इतना करे कि
दुपहिया दौड़ाते समय,
ट्रैफिक को पछाड़ते समय,
मोबइल पर बतियाते समय
बस इतना और किया करें....
कि दोनों हाथ सिर पर धर लिया करें
फिर त्रिलोकीनाथ
कितना ही टारगेट बढ़ाएं
बस रोज ही पूरा पाएं

Thursday, March 29, 2007

भारत एक कृषि (कुर्सी) प्रधान देश है

सुबह सवेरे
एक सड़के के किनारे बोर्ड पर पढ़ा -
हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है
पढ़कर मन मयूर पुलकित हुआ
तभी दिमाग ने अलख जगाई - आवाज आई
क्‍यूं छलावे में आ रहा है
ऊपर से ऐसा ही लिखने का आदेश आ रहा है
यह देश तो हजारों साल से कुर्सी प्रधान देश रहा है
समझदार लोग इस परम सत्‍य को मानते हुए
पीढ़ी दर पीढ़ी
कुर्सी की ही पूजा करते चले आ रहे हैं
किसान को मूरख बनाकर
उसे अन्‍नदाता बताकर
सदियों से राज़ को कायम रखते हुए
इस देश पर
राज कर रहे हैं
इतने पर ही बस नहीं है
सिंगूर के किसानों पर
गोली चलवाकर
कारखाना लगवा रहे हैं
पूरे देश में उद्योग (पतियों) की सेज लगाने
में फूल भी लगेंगे
इसलिए बंजर को बचाकर
उर्वरा, शस्‍य-श्‍यामला, सुजला पर ही
उनकी सेज बिछा रहे हैं
सुनो सब सुनो
यदि यह देश वास्‍तव में कृषि प्रधान होता
तो न गोली चलती किसानों पर
न खेती की भूमि पर कब्‍जा होता सरकारी
फिर भी
सौन्‍दर्यबोध तो देखो
देश को फिर-फिर कृषि प्रधान बता रहे हैं
शायद इसी बहाने कुछ जन-मत जुटा रहे हैं
इस कुर्सी प्रधान देश की कुर्सी
के पाए हैं चाटुकार
जिन्‍हें कृषि से नहीं कुछ दरकार
जो वास्‍तव में नेपथ्‍य से चला रहे हैं - सरकार
यह तो आदिकाल से चीख चीख कर बताया जाता रहा है
कि सुनो
भारत में कृषि एक जुआ है
इसीलिए कृषि को नहीं
प्रकारान्‍तर से जुए को हटा रहे हैं
क्‍या पुण्‍यलाभ कमा रहे हैं
कृषक को जुआ खेलने से बचा रहे हैं
न भूमि होगी और न होगी कृषि
फिर जुए की क्‍या मजाल जो ठहरे
अनावृष्टि या अतिवृष्टि की व्‍यथा भी सुनने को न मिलेगी
बाढ़ आने पर भी खेती का न होगा नुकसान
कितना खुशहाल होगा फिर अपना किसान
तरक्‍की की इन्‍तहा तो देखो
वे दिन गए जब
बांस न होने से बांसुरी नहीं बजती थी
अब तो नया जमाना है
इसीलिए स्‍टील की बांसुरी बनाना है
भारत को कुर्सी प्रधान देश ही बनाना है
खेती ही न होगी तो किसान
आत्‍महत्‍या भी न करेगा
भला हो तुम्‍हारा वह तो पाप से बचेगा
भला हो तुम्‍हारा वह तो पाप से बचेगा
फिलहाल तो
ऊपर से यही आदेश है
लिखो - भारत एक कृषि प्रधान देश है

काश ऐसा होता
योजनाओं की तरह
कृषि भी कागज पर होने लगती
तो कितना फल देती
एक भी बीज वृथा न जातासारा देश हरा हो जाता
तब वास्‍तव में
देश हमारा कृषि प्रधान होता
हर पन्‍ना अनाज से अटा होता
वो बात दूसरी है कि तब
सबका पेट - अपनी ही पीठ से सटा होता

Sunday, March 25, 2007

समाचार है या स्‍टोरी

लगभग चार दशक पहले समाचार, संगीत या अन्‍य मनोरंजन के कार्यक्रमों का एकमात्र् सहारा हुआ करता था - रेडियो. इसी साधन से समाचारों की जानकारी या मनोरंजन के अन्‍य कार्यक्रम जैसे संगीत, नाटक भी प्रसारित होते थे. दायरा सीमित था, केवल श्रवण. इसके समय बीते तो आकशवाणी ने अपना प्रसार किया और श्रवण के साथ साथ दर्शन भी होने लगे. पर दर्शनलाभ का समय नियत था प्रतिदिन शाम के समय दो या तीन घन्‍टे का समय इस दर्शन में जाया करता था. लेकिन इस समय तक होता यही था कि दर्शन या श्रवण दोनों में से किसी ने भी मर्यादा को छोड़ा नहीं था.

बीसवीं सदी का अंतिम दशक - जिसे सूचना क्रान्ति का दशक भी कहा जाता है - जिसके कर्णधार रहे सैम पित्रोदा - इनका असली नाम मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे ये मूल रूप से गुजरात के थे, और इनके नाम के साथ भाई भी जुड़ा हुआ था. इस दशक में संचार क्रान्ति के नए आयाम स्‍थापित हुए और लोगों ने एक के बाद एक दे दनादन केबल कनेक्‍शन लेने शुरू कर दिए. इन सबने मिलकर मनोरंजन के साधनों में भी धुंआधार बदलाव किए. समाचार, खेलकूद, ज्ञान विज्ञान, खोज, सिनेमा, चिकित्‍सा जगत और धारावाहिकों के अलावा जानकारी के लगभग सभी क्षेत्रों से जुड़े कार्यक्रम घर घर पहुंचने लगे. निजी क्षेत्र को भी अनुमति देने के बाद तो जैसे चैनलों और कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई. जिस टीवी में दो चार चैनल देखने को मिलते थे, उसी में सौ से भी ज्‍यादा चैनल होने लगे.
चैनलों के साथ ही कार्यक्रमों की भी रेलमपेल हो गई. यही नही हर चैनल वाले ने एक दूसरे से आगे निकलने की ऐसी होड़ मचाई की पुरानी दिल्‍ली के खारी बावली का ट्रैफिक जैसा नजारा प्रस्‍तुत हो गया. मनोरंजन तक ही बात सीमित रहती तो चल जाता, पर होड़ मची खबर देने की. सबसे पहले और सबसे ज्‍यादा समाचार देने की.
अब समाचार की क्‍या कहिए - हर पल नया होता है, अतीत और भविष्‍य एक दूसरे से सटे रहते हैं. काल अपनी गति से भागता रहता है और मानव अपनी गति से. पर यह भी उतना ही सत्‍य है कि हर पल नया समाचार जन्‍म नहीं ले सकता. क्‍योंकि समाचार की पहली शर्त होती है नवीनता, दूसरी विचित्रता और साथ ही समाज का हित. अब आप दिन के चौबीसों घंटे समाचार कहां से लाएंगे, ताजा समाचार कहां से लाएंगे. तो समाचार के पुरोधा नए युग में एकदम पुराने सूत्र की ओर चले गए - कि कुत्ता आदमी को काटे तो कोई समाचार नहीं लेकिन यदि आदमी कुत्ते को काटे तो धांसू समाचार बनता है. बस आदमी ने कुत्ते को काटना शुरू कर दिया और इसी तर्ज पर समाचार भी गढ़े जाने लगे. पर इस नियम की भी अपनी सीमा है तो इन समाचारा पुरोधाओं ने उन लोगों को तलाशना शुरू कर दिया जो छपास रोग से ग्रसित लेखक की तरह से ही दर्शन लाभ देने के लोभ से ग्रसित हैं. बस फिर क्‍या था समाचार चैनल और विज्ञापन दाता एजेंसी सभी की पौ बारह हो गई. बे-सिर-पैर के सवाल, करुणरस में भी हास्‍य रस का सृजन करने वाले बेतुके जुमले - कि दर्शक भी चकरा जाए आखिर कहना क्‍या चाह रहे हैं. रही सही कसर आफ्टर दि ब्रेक से पूरी हो जाती है.............


आगे पढि़ए समाचारों की कमी को पूरा करने का तरीका बस वही आफ्टर दि ब्रेक .......